सामाजिक परिवर्तन (Social Change)
प्रस्तावना व महत्त्व
परिवर्तन — परिवर्तन प्रकृति का गुण है और सदैव ही यह किसी न किसी रूप से होता रहता है। इसी परिवर्तन होने के गुण को विद्वान् लोग गतिशीलता की संज्ञा देते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में भी वस्तु, समय व परिस्थिति के कारण सदैव ही परिवर्तन होते रहे हैं, होते हैं या होते रहेंगे। ये परिवर्तन अच्छी दिशा में भी हो सकते हैं तथा बुरी दिशा की ओर भी जा सकते हैं, यदि ये परिवर्तन अच्छी दिशा में होते हैं तो देश व क्षेत्र उन्नति करते हैं तथा यदि परिवर्तन बुरी दिशा की ओर हुए तो देश की अवनति होती है। दार्शनिकों, नेताओं व अधिकारियों का प्रयास सदा ही इन प्रयत्नों को अच्छी दिशा में ले जाना होता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने ग्रामीण पुनर्निर्माण के अनेकों कार्यक्रम व सामुदायिक विकास की योजनायें देश में चलाई गई हैं जिनका एक मात्र उद्देश्य इस ग्रामीण परिवर्तनशीलता को रचनात्मक दिशा देना है इसकी जानकारी ग्रामीण समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये आवश्यक हो जाती है। सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय।
साधारण रूप से सामाजिक परिवर्तन का अर्थ हम समाज में होने वाले परिवर्तन से लगाते हैं। प्रत्येक समाज परिवर्तनशील है। समाज से हमारा अभिप्राय सामाजिक सबन्धों के ताने-बाने से है (Web of Social Relationship) समाज मनुष्यों से बना है अतः मनुष्यों के सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होते रहने को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। विशिष्ट अर्थ में सामाजिक परिवर्तन से अभिप्राय उन्हीं परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढाँचे और कार्यों में होते हैं।
ग्रामीण मनुष्य अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व नैतिक जीवन में क्या-क्या नई बातें ग्रहण कर चुका है तथा किस प्रकार सोचता व कार्य करता है, यही ग्रामीण परिवर्तनशीलता कहलाती है। ये परिवर्तनशीलता दो प्रकार की हो सकती है एक तो अचेतन (Unconscious) और दूसरी चेतन (Conscious) होती है। अचेतन परिवर्तनशीलता उन्हें कहते हैं जो स्वयं ही बिना किसी योजना के स्वाभाविक होती रहती है और चेतन परिवर्तनशीलता उन्हें कहते हैं जिनके लिये परिवर्तन किये जाते हैं। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति को शिक्षित करके उसे नये उन्नतिशील कार्यक्रम की ओर लगाना चेतन परिवर्तनशीलता होती है तथा किसी व्यक्ति को करता हुआ देखकर यदि कोई मनुष्य कार्य करे तो उसे अचेतन परिवर्तनशीलता कहते है।
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषायें
( 1 ) “सामाजिक परिवर्तन से हमारा अर्थ, सामाजिक संगठन में होने वाले उन परिवर्तनों से हैं जो समाज की संरचना और कार्यों में उत्पन्न होते हैं।”
–के० डेविस
“By social change is meant only such alterations as occurs in social organization, that is the structure and functions of society.”
-K. Davis
( 2 ) “सामाजिक परिवर्तन से अभिप्राय सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तनों से है उन बदलते हुए ढंगों से जिनसे व्यक्ति एक-दूसरे से अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं।”
-मैकाइवर और पेज
“By social change is meant changes in a social relationship…. the changing ways in which human beings relate themselves to one another.”
(3) “सामाजिक परिवर्तन से किसी विशेष अवधि में किसी सामाजिक प्रघटना में होने वाले स्पष्ट अन्तरों का बोध होता है।”
– लुन्डर्ब तथा लारसेन
“Social change represents any observable differences in any Social phenomena over any period of time.”
– Lunderb & Larsen
(4) “सामाजिक परिवर्तन एक ऐसी बोधगम्य प्रक्रिया है जिसके द्वारा निश्चित सामाजिक व्यवस्थाओं की संरचना तथा कार्य प्रणाली में होने वाले महत्त्वपूर्ण अन्तरों का बोध किया जा सकता है। “
– एल्बिन बोस्कॉफ
“Social change is the intelligible process in which we can discover significant alterations in the Structure & functioning to the determinate social system.”
-Alyin Boskof
सामाजिक परिवर्तनशीलता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Effecting Social Change)
प्रभावित करने वाले कारक
(1) शिक्षा – जिस क्षेत्र में शिक्षा अधिक प्रसारित होगी वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी।
(2) यातायात के साधन – जिस गाँव व क्षेत्र में यातायात के साधन विकसित हो जाते हैं वहाँ परिवर्तनशीलता जल्दी होती है क्योंकि लोग आसानी से दूसरे लोगों के सम्पर्क का लाभ उठा लेते हैं।
(3) नगर की दूरी – जो ग्रामीण क्षेत्र नगर से जितनी दूर होगा वहाँ परिवर्तनशीलता उतनी ही कम होगी।
(4) औद्योगीकरण – जिस क्षेत्र में औद्योगीकरण अधिक होगा वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी उस क्षेत्र की अपेक्षा जहाँ औद्योगीकरण नहीं हैं।
(5) सरकारी योजना – जिस क्षेत्र में सरकार की योजना चलाई जायेगी वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी क्योंकि लोग योजना से प्रभावित होंगे तथा कर्मचारियों के सम्पर्क से लाभ उठायेंगे।
(6) आर्थिक सम्पन्नता – जिस क्षेत्र में आर्थिक सम्पन्नता अधिक होगी वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी।
(7) सामाजिक क्राँति – जिस क्षेत्र में सामाजिक क्राँति का कोई भी कार्यक्रम चलाया गया हो वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी।
(8) राजनैतिक चेतना – जिस क्षेत्र में मनुष्य राजनैतिक रूप से चैतन्य होंगे वहाँ परिवर्तनशीलता अधिक होगी।
ग्रामीण भारत में परिवर्तनशीलता
आधुनिक समय में भारतवर्ष के ग्रामीण क्षेत्र में निम्नलिखित सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तनशीलता हुई है जो निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त की जा सकती हैं
(A) सामाजिक जीवन में परिवर्तन
(1) पारिवारिक जीवन में परिवर्तन- ग्रामीण जीवन में परिवर्तन नित्य होता जा रहा है, परिवार में जो बड़ों का सम्मान, आपस में प्यार होता था वह अब कम होता जा रहा है और प्रत्येक व्यक्ति परिवार के हित की अपेक्षा अपने किसी निज हित की बात सोचता है और परिवार की धारणा केवल स्वयं व बीवी-बच्चों तक ही सीमित रह गई है, यद्यपि वह अभी पूरी तरह लागू नहीं है फिर भी इस दिशा में ग्रामीण जीवन जा
(2) संयुक्त परिवार का विघटन संयुक्त परिवार में मनुष्यों की आस्था कम होती जा रही है व्यक्तिगत परिवार बनते जा रहे हैं।
(3) बाल विवाह पर रोक- बाल विवाह की प्रथा जो ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक थी धीरे-धीरे कम होती जा रही है और मनुष्य बड़ी आयु में विवाह करने लगे। यह भी अभी परिवर्तनशीलता की दिशा में प्रयास हैं, पूर्णरूप से लागू नहीं है
(4) विधवा पुनर्विवाह व अन्तर्जातीय विवाह के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन- ग्रामीण क्षेत्रों में अब बहुत से लोग विधवा स्त्री के विवाह को मान्यता देने लगे हैं अन्तर्जातीय विवाह को भी कुछ लोग मान्यता प्रदान करने लगे हैं। इस प्रकार इन दोनों कार्यों के प्रति अब अधिक कठोरता नहीं अपनाई जाती। यह परिवर्तनशीलता की दिशा में अच्छा प्रयास है।
(5) जातियता के आधार पर ऊँचा व नीचा होने की भावना में परिवर्तन- ग्रामीण क्षेत्रों में अब यह भावना भी बढ़ती जा रही है कि जाति ही मनुष्य के ऊँचा व नीचा होने के कारण नहीं है बल्कि उसके गुण ही ऊँच व नीच के आधार हेते हैं। यह भावना भी अब बढ़ती जा रही है।
(6) जातियता के आधार पर मनुष्य के व्यवसाय अब निश्चित नहीं होते हैं।
(7) जातियता की भावना के प्रति दृष्टिकोण-ग्रामीण क्षेत्र में यद्यपि सरकार जातियता को समाप्त करने का दावा करती है, परन्तु वास्तव में उल्टा हो रहा है, जातियता का नशा भयंकर होता जा रहा है जो देश के लिये घातक है।
(8) जातियता के आधार पर वस्त्र व आभूषणों का निर्धारण- बहुत से क्षेत्रों में वस्त्र व आभूषणों का निश्चय जातियता के आधार पर होता था जैसे सोने के आभूषण केवल ऊँची जाति के लोग ही पहनते थे शूद्र नहीं, यह धारणा टूट गई है।
(9) सामूहिक शिक्षा व मिलन केन्द्र ग्रामीण क्षेत्रों में हरिजन व ब्राह्मण बालक अब साथ-साथ लिखने-पढ़ने लगे हैं जो पहले नहीं था।
(10) धार्मिक स्थानों व रीति-रिवाजों में सभी छूट- धार्मिक स्थानों व त्यौहारों में सभी को साथ-साथ जाने की छूट अब मिलने लगी है यद्यपि अभी भी यह पूरी तरह नहीं उपलब्ध होती है।
(11) दहेज प्रथा व मनोरंजन के साधनों के प्रति भावना-ग्रामीण क्षेत्रों में अब नगर को देखकर दहेज प्रथा बढ़ती जा रही है तथा मनोरंजन के केन्द्र सिनेमा आदि बढ़ते जा रहे हैं।
(12) सामूहिक भावना में परिवर्तन — आज गाँव में सामूहिक भावना लुप्त हो चुकी है और कमजोर लोगों को गाँव छोड़ने पर विवश होना पड़ता है।
(13) पर्दा प्रथा की न्यूनता- पर्दा प्रथा जो कभी बहुत प्रबल थी अब नहीं के बराबर रह गई है, शिक्षा के प्रसार ने इस सिद्धान्त को नया मोड़ दे दिया है अब आँखों की शर्म की बात ज्यादा प्रचलित है, ग्रामीण लोग लाभ-हानि का विचार करके ही बातें या रीति-रिवाज अपनाते हैं।
(B) आर्थिक जीवन में परिवर्तन
(1) कृषि धन्धे में परिवर्तन-नये ज्ञान के कारण कृषि में नये-नये ढंग लोगों ने अपनाये हैं जिससे कृषि का विकास हुआ है और ‘हरित क्रान्ति’ व ‘श्वेत क्रान्ति’ देश में चलाई गई है।
(2) सहायक उद्योग धन्यों का विनाश- सरकार सहायक उद्योग धन्धों को विकसित कर रही है फिर भी पुराने ग्रामीण उद्योग नष्ट हो गये हैं जिनके कारण कृषि पर दबाव बढ़ गया है।
(3) कृषि पर जनसंख्या का दबाव – यह प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
(4) आमदनी में परिवर्तन- लोगों की मौद्रिक आय तो बढ़ी है परन्तु वास्तविक आय नहीं बढ़ पाई है।
(5) जीवन स्तर व भोजन में परिवर्तन नगरों के सम्पर्क के कारण ग्रामीण जीवन में भी बनावट आ गई है मनुष्य दिखावा अधिक करने लगे हैं। भोजन में दूध का स्थान चाय लेती जा रही है जो अधिक बढ़ती जा रही है।
(6) सहयोग की व्यवस्था ग्रामीण मनुष्यों में सहयोग की भावना जो पहले थी वह कम होती जा रही है, मनुष्य अपने आप में ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है।
(7) साधनों की व्यवस्था ग्रामीण मनुष्य साधनों के लिये अपने आप में निर्भर न रहकर कर्जे के ऊपर अधिक निर्भर रहते हैं।
(8) विपणन व मूल्यों के प्रति सचेतना ग्रामीण मनुष्य अपनी उपज को बेचने के लिये मूल्यों व विपणन से परिचित हैं और लाभ के समय ही बेचता है। साधनहीन लोग ही मजबूरी में बेचते हैं। इस प्रकार ग्रामीण अब मूर्ख नहीं कहा जा सकता।
(C) राजनैतिक जीवन में परिवर्तन
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में दिनों-दिन राजनैतिक परिवर्तन आ रहे हैं। गाँवों में शिक्षा की सामग्री की उपलब्धि ने भी इस दिशा में नया मोड़ दिया है। गाँवों में रेडियो, अखबार, ग्रामीण लाइब्रेरी, गोष्ठियाँ के कारण राजनैतिक चेतना आई है। आज भारतीय ग्रामवासी छोटे-छोटे मामलों पर कभी-कभी तो भारतीय संविधान के बारे में बातें करते देखे जाते हैं। आज राजनैतिक क्षेत्र में पैसे के अलावा आदमी की बुद्धिमत्ता का ज्यादा महत्त्व है – भारतीय संविधान के अनुसार, दी गई सुविधायें जो निम्न हैं
हर ग्रामवासी अच्छी तरह जागरूक है, गरीब-अमीर, ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े सब लोग प्रजातन्त्र का अर्थ सही मायने में समझते हैं। ये ही ग्रामवासी जो हर समय पूर्व अज्ञानी, नासमझ, अशिक्षित की संज्ञा पाया करते थे। आज बड़े-बड़े वैज्ञानिकों से भी (Causes & Effect) आधारों पर बहस करते हैं।
उपरोक्त सभी परिवर्तनों के होते हुये भी कुछ स्थानों पर सम्पन्न लोग निर्धन व छोटे लोगों को अपने राजनैतिक विचार स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने की अनुमति नहीं देते हैं। कहीं-कहीं पर तो शक्ति ही अधिकार (Might is Right) का सिद्धांत आज के बदले हुए समय में भी पूर्ण रूप से लागू होता है।
(D) धार्मिक जीवन में परिवर्तन
ग्रामीण जनता के धार्मिक जीवन में भी अब काफी परिवर्तनशीलता दिखाई पड़ती है, अन्धविश्वास, पौराणिक आस्था का स्थान तर्क व समझदारी लेती जा रही है। धार्मिक स्थानों पर भी सभी जाति के लोग एकत्र होने लगे हैं। कुछ क्षेत्रों में तो धर्मनिरेक्षता का साम्राज्य दिखाई पड़ता है। पूर्ण रूप से तो न ग्राम धार्मिक रहे न प्रगतिशील वे परिवर्तन की स्थिति में हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक धार्मिक आस्था वाली हैं।
(E) नैतिकता सम्बन्धी परिवर्तन
(F) शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन
(1) शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार के प्रयास से लगभग सभी बच्चे प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रत्येक ग्राम में प्राथमिक पाठशाला प्रायः पाई जाती है।
(2) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पाने के लिये भी प्राय: सभी लोग अपने बच्चों को भेजने लगे हैं, जो लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं उनके बच्चों को सरकार की ओर से मुफ्त शिक्षा व अनेक छात्रवृत्तियाँ दी जा रही हैं।
(3) धार्मिक शिक्षा जो मन्दिरों व मस्जिदों में दी जाती थी उसका महत्त्व कम होता जा रहा है उसके स्थान पर व्यवसायिक शिक्षा आती जा रही है।
(4) उच्च शिक्षा के प्रति लोगों की आस्था होते हुये भी बढ़ती बेरोजगारी के कारण अविश्वास होता जा रहा है।
(5) तकनीकी शिक्षा के प्रति रूचि बढ़ती जा रही है क्योंकि हर आदमी सोचता है कि कोई सीखकर अपनी रोजी कमा ले तो अच्छा, बेरोजगारी का जमाना है।
(G) अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन
(1) स्वच्छता व सफाई में परिवर्तन ग्राम जो प्रायः गन्दगी के केन्द्र माने जाते थे अब स्वच्छता व सफाई के महत्त्व को समझने लगे हैं। धीरे-धीरे पक्के रास्ते व स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था भी ग्राम में होने लगी है।
(2) स्वास्थ्य केन्द्र व अस्पताल की व्यवस्था— पहले बीमार होने पर भगवान के सहारे रहने वाले व्यक्ति अब ग्राम में उपलब्ध डॉक्टर व वैद्य का पूरा लाभ उठाने लगे हैं।
(3) मनोरंजन के लिये खेल-कूद के साथ-साथ ग्रामीण बालक सिनेमा Cinema, आदि के प्रति भी काफी रूचि दिखाने लगे हैं। न्यूज पेपर व रेडियो भी पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के अंग बन गये हैं।
(4) मदिरापान व धूम्रपान में बढ़ोत्तरी भी अब ग्राम में अधिक मिलने लगी है।
परिवर्तनशीलता का आलोचनात्मक अध्ययन
ग्रामीण जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आना शुरू हो गया है जो अभी अधूरा है, क्योंकि पुरानी विचारधारा व नयी रोशनी का संगम स्थल ग्राम ही है। कुछ परिवर्तन तो रचनात्मक दिशा में ले जाने वाले हैं जैसे कृषि तकनीकी व कुछ सामाजिक क्षेत्र सुधार, परन्तु कुछ परिवर्तन विनाश की ओर ले जाने वाले हैं जैसे आपसी सद्भावना का न होना, शराब पीना व अन्य प्रकार की गुण्डागर्दी जिससे निर्बल लोगों का जीवन कठिन हो गया है। अतः सभी शिक्षित व्यक्तियों, सरकार व समाजशास्त्रियों का यह कर्तव्य हो जाता है कि इस परिवर्तनशीलता को रचनात्मक दिशा की ओर ही बढ़ाये जिसके लिये कठोर परिश्रम करना आवश्यक है।
References – डॉ उम्मेद सिंह – कृषि प्रसार, प्रशिक्षण एवं प्रबन्ध, भारती भण्डार , मेरठ